मै / तुम
1>
हम दोनों ही
बड़ा बनना चाहते थे-
तुम्हें
उनकी नजरों में बड़ा दिखना था,
मुझे
मेरी नजरों में ।
2>
दोनों को ईश्वर नहीं मिला ,
तुम्हें वो नहीं मिला,
मुझे तुम ।
3>
जीवन भर ,
मैनें अपनी पहचान ढूँढी,
फ़िर -
मुझे तुम मिले ।
1>
हम दोनों ही
बड़ा बनना चाहते थे-
तुम्हें
उनकी नजरों में बड़ा दिखना था,
मुझे
मेरी नजरों में ।
2>
दोनों को ईश्वर नहीं मिला ,
तुम्हें वो नहीं मिला,
मुझे तुम ।
3>
जीवन भर ,
मैनें अपनी पहचान ढूँढी,
फ़िर -
मुझे तुम मिले ।
देश पर निज प्राण के जो पुष्प न्यौछावर करे
जो कफ़न का ओढ़ चोला देश पर ही मिट मरे
उस तनय के जनक द्वय को नमन बारंबार है
जो गँवाकर प्राण करता देश का शृंगार है ।"
जब भी कुछ फ़ुरसत मिलती है,
कुछ आसमान चढ़ लेते हो ;
अम्बर की गर्वित ऊँचाई ,
को थोड़ा कम कर देते हो ।
सपनों के उड़ते बादल को
डोरी से खींच धरातल पर,
साँचे में उसको ढाल- ढाल
कर मूर्त्त,बना देते प्रस्तर ।
विस्मित है यह ब्रह्मांड सकल
लखकर तेरा पुरुषार्थ प्रबल ;
ऐसी उड़ान, ऐसी तेजी
रे मनुज ! तुझे किसने दे दी ?
संसृति ने नग्न उतारा था
सूनी ,उजाड़ इस धरती पर
ज्यों किसी राख के ढेर तले
कोई चिंगारी हो भीतर ।
पर कौन जानता है, किस
चिंगारी में क्या ज्वाला बसती ?
किस छाती में, किन तूफ़ानों की
अंगड़ाई लेती हस्ती ?
सपनों की छाती में लेती
हो अगर उड़ानें अँगड़ाई,
तो रोक नहीं सकती उसको ,
पर्वत की कोई ऊँचाई ।
यदि यहाँ दरारों से पत्थर की,
कोई पतली धार बही ;
कुछ दूर निकलकर बनती है
वेग से उफ़नती नदी कहीं ।
जब बूँद-बूँद , घट-घट भरकर
यह सिंधु उफ़नता है आगे
तो ग्यात हुआ है सपनों से
तुम निकल गये कितना आगे ।
अब पता नहीं ,तुम इस दुर्लभ
ऊँचाई का क्या करते हो ?
सीढ़ी फ़िर नई बनाते हो,
या धरती पर पग धरते हो।
तुमने अपने संधानों से
धरती को बहुत बदल डाला
पहले खुद नंगे आये थे
अब इसको नंगा कर डाला !
अच्छा है , छूना आसमान
अच्छा है चढ़ना नित ऊपर;
पर इसका भी तो ध्यान रहे
हों कदम हमारे धरती पर !
जिस दिन पैरों के नीचे से
यह धरा खिसकती जायेगी,
उस दिन इस धरती की तुझको
अहमियत समझ में आयेगी ।
-आलोक शंकर
आदमी यह सोचता है, काश अपने पंख होते,
तो गगन में उड़ रहे हम खग-सदृश निःशंक होते ।
आज जीवन में हमारे उलझनें जो आ पड़ीं हैं,
और यदि सामर्थ्य से लगने लगी विपदा बड़ी है ।
दीप यदि उम्मीद का , होकर विवश बुझने लगा है,
और मन का दीप्त कोना ज्योति से चुकने लगा है ।
नीति यह कहती नहीं है हारकर पथ छोड़ देना,
श्रेय है तब राह का हर एक पत्थर तोड़ देना ।
आदमी के सामने कोई विपद कबतक टिकेगा ?
यदि हिमालय भी खड़ा हो सामने, पल में मिटेगा ।
कर-द्वयों से तोड़ लाते तुम्हें , नभ के चाँद- तारों
सोच लो, क्या कर गुजरते, हाथ होते गर हज़ारों ।
कोई हँसी न खुशबू देगी कहीं,
दीवारें कुछ गढ़ जायेंगीं ,
पत्थर , चंदन , शबनम, धागों
की आवाज़ें रह जायेंगीं ।
आड़ी तिरछी तसवीरों की,
रंगीं बातें बह जायेंगीं ;
जब धुँध कहीं पर कम होगा,
तेरी बातें रह जायेंगीं ।
जिंदगी , आवाज़ तेरी , बुझ गयी तो क्या करुँगा ?
याद की परछाइयों में ही कहीं ढूँढा करूँगा ।
बीत गई वह निशा सुखद- सी,
टूटा अम्बर का अभिमान;
सारे उसके हँसते माणिक ,
बिखरे भू पर हो निष्प्राण ।
उदयाचल की ओर जरा लख,
क्षीण हुई सारी श्री , मान ;
रजतरश्मियाँ क्षीण हो उठीं,
लुप्त हुए विभु के यश गान ।
मधुरम कंठस्वर को तज रे,
कवि तू कर अब निर्मम गान ।
छलक पड़ा है विष कलियों से,
खग करते प्रलयंकर गान;
चंद जीर्ण पत्रों के वश में,
आज हुए तरु के ही प्राण ।
कर्कश स्वर वंशी से निकले,
देख, हुई वृंदा वीरान;
दिक्कालिमा मध्य रोते हैं,
गीता , मानस और कुरान ।
वीणा में संहारक स्वर भर
कवि रे, कर अब निर्मम गान ।
आज समय की दिशा बदल दे
तोड़ क्रूर तम का अभिमान;
दिनकर की तू ज्योति फिरा दे,
कर दे अब भू का कल्याण ।
सूने अम्बर में शब्दों के ,
मोती भर , लौटा दे प्राण ;
शीतल कर तू आज शशिकला,
लौटा विहगों के मधु- गान ।
कवि , अपने भैरव स्वर से,
कर दे आतंकित दुर्जन - प्राण ;
चिनगारी छिटका शब्दों से ,
करा गगन जो ज्योति - स्नान ।
निज कविता के कर्कश स्वर से,
आज कँपा दे सबके प्राण
भर , कविता में अब कटु -स्वर भर
कवि तू कर अब निर्मम गान ।
रचनाकाल - 2000 , यह कविता मेरे विद्यालय की पत्रिका ' विकास - वाणी ' में प्रकाशित है और मेरी सबसे पहली रचनाओं में से एक है ।
सस्नेह
आलोक शंकर
तुम होते तो
इतना कुरूप अंतर का यह शृंगार न होता
नयनों में यह बद्ध नीर , उर का पीड़ित संसार न होता ।
मानस -पटल घने कोहरे में जब भी दुःखाकुल होता;
शोक - मलिन उर के पट पर नयनों की उजियाली मलता ।
विपदा के वीरानों में जब भी आहट तेरी दिखती;
निज - प्राणों के टुकड़े करके , सुख- संगीत बहा देता ।
प्रिये ! तुम्हारा मन किंचित, अँधियारों से विचलित होता;
प्रकृति से विद्रोह उठा मैं नव- आदित्य उगा देता
……… तुम होते तो ।
सोने दो उन्हें ,
जिन्हें सोने की आदत है;
कर्मवीर हैं,
ज़रा सा इस गुण का दंभ-
सो,
सो रहे हैं;
इंसान-
आदमी जो बन रहा है ।
नोट : यह कविता पत्रिका 'अनुभूति ' में प्रकाशित है ।
हमें न सागरों सी ख्वाहिशें उठानी हैं
कि एक बूँद से हलक अभी भी ज़िन्दा है
किसी खयाल से लहू कभी थमा होगा
झलक से आँख में लमहा कोइ जमा होगा
कि काश उम्र तलक हम उसी को जी पाते
समय की तेज़ तेज़ आन्धियों में सी पाते
तो ज़िन्दगी न यूँ ही बेवज़ह पड़ी होती
खुले लिहाफ़ की रेखा ज़रा बड़ी होती
कई कहानियॉ सी हाशिये पर सिमटी हैं
तभी बेज़ान से ये हाशिये भी ज़िन्दा हैं
नोट : यह कविता पत्रिका 'अनुभूति ' में प्रकाशित है ।
काँच की परछाइयों में कुछ नई तो बात है
रोशनी से टूटती तो हैं, मगर निःशब्द हैं
आहटों से खेलकर तो बात कुछ बनती नहीं ,
ख्वाहिशों को गूँथकर बनता कहीं कुछ राग हो;
कौन कहता है हवा पर पाँव रख सकते नहीं,
आसमाँ छूने का ये शायद कोई अन्दाज हो।
कोई पर्दा रोशनी को रोक तो सकता नहीं,
नींद से फिर जाग लेने में बड़ी क्या बात है;
देखना, पर जागने से, ना गिरें परछाइयाँ
गूँजती परछाइयों की दूर तक आवाज़ है
Read more...नोट : यह कविता पत्रिका 'अनुभूति ' में प्रकाशित है ।
शुष्क-शीर्ण
कमलिनि लता में
नवल किसलय
आज फ़ूटा -
नीरसा मृत्तिका में
कहीं तो रस आज बाकी है।
सुनो -
निस्पंद
नीरव
निर्वात में गुनगुनाते
नूपुरों का क्वणन-
दिगन्त शब्दमान है;
जिह्वा कट गयी ,
वदनों में
कुछ -
आवाज़ बाकी है।
बचो,
झन्झा से उड़ गये पर्दे धवल
द्युति की द्युति में
दिक्कालिमा को प्रश्रय नवल;
कुछ भी तो नहीं अकिंचन-
श्यामल ,शीतल
क्या कहीं कोई
राज़ बाकी है?
सब तो है , पर
कुछ नहीं,
शायद-
तलाश आज़ बाकी है।
देखो-
आदमी की लाश से
कुछ अमर्त्य सा
उठ रहा है;
हिम सा उष्ण,
आग सा शीतल
अभी-
आदमीयत का
आगाज़ बाकी है।
दिनकर अपना तेज़ त्याग, शीतलता धारण कर लें
या शशि अपनी धवल ज्योति सारे पिण्डों से हर लें ;
अग्नि त्याग दे पवित्रता, गंगा त्यागे निज़ -धारा
अमृत कलश विष बरसाये, म्रृत हो जाये जग सारा।
स्वर्ग धरातल में जाये, किन्नर दानव हो जायें
या अपनें हि प्रिय मधुकर को कुसुम मारकर खायें;
मही डोल जाये लेकिन पुरुषार्थ नहीं डोलेगा
टूट जाय अम्बर लेकिन यह वचन नहीं टूटेगा;
मैं अष्टम गांगेय आज यह भीषण प्रण करता हूँ ,
ब्रह्मचर्य पालन करने का पावन व्रत धरता हूँ ॥
आदित्यों का तेज़, घनी छाया जिसको करता है
जिसकी धनु की प्रत्यंचा से निखिल भुवन डरता है
देवों का देवत्व ,नमन जिस नरता को करता है
कालजयी ,उस आदि पुरुष को मनुज कौन कहता है?
नहीं मनुज तुम भीष्म , मनुजता की तुम नव आशा हो
निष्ठा , भक्ति, प्रतिग़्या -पालन की कोई भाषा हो।
सिन्धु की विकल रूह के तट पर
मन की डोर थामकर कसकर
फ़िरता हूँ खाली खाली सा
अम्बर की लोहित लाली सा;
पतझड में झरकर गिरता हूँ
आँधी में उड़ता फ़िरता हूँ ,
चखता हूँ अस्तित्व जलाकर
नित नित पावक में सुलगाकर
पर निःस्वाद निरा लगता है,
कुछ बदला - बदला लगता है।
मेरी परिवर्तित सी काया
दुर्बल, निराकार यह छाया
अधरों पर अत्रिप्त उदासी
लोलुप कायरता सी प्यासी
देख रहा हूँ सब, क्षणभंगुर
कल फ़ूटेगा फ़िर जब अंकुर
निकलूँगा कोमल तन पाकर
फ़िर आकार नवीन बनाकर
अम्बर में फ़िर रंग भरूँगा
वारिधि का संगीत बनूँगा ।
लहरों पर फ़िर उतराऊँगा
मद्धम मद्धम लहराऊँगा;
अब , जब आखिर साँस बची है
यह चेतना नवीन जगी है।
मैं ही व्यर्थ शोक करता था,
इस क्षण से डरता फ़िरता था
पतझड़ का , आँधी , सागर का,
भू के जीव अंश नश्वर का;
अम्बर का , गिरि का , निर्झर का
पीड़ा से आहत , जर्जर का
होता अद्वितीय मिलन है
प्रकृति का बस यही नियम है।
वसुधा के अतृप्त अधर पर
हरे पल्लवों से ढल - ढलकर
अम्बर के प्याले से मानो,
जलजों ने अमृत ढाला है;
धूल अर्श पर बहुत पडी थी ,
बारिश ने सब धो डाला है।
प्यासी ,थकी दरारों मे,
अमृत डाला है घट भर भर कर;
बालवृन्द सब झूम उठे,
हैं लगे नहाने किलकारी भर।
स्वस्ति सुधा की इन बूँदों ने,
मन आह्लादित कर डाला है;
स्नेह भरा हृत्पात्र,नयन में,
बारिश ने कुछ कर डाला है।
पृथा, कृषक की आँखो से,
गिर पड़े हर्ष-चक्ष्वारि उमड़कर;
कहीं मगर, शोकान्धकार
ले आये खल घट घुमड़-घुमड़कर ।
शुष्क पत्र सदृश अन्तस पर,
नीर भरा क्यों जल डाला है;
याद दिला दी उस सावन की ,
बारिश ने क्या कर डाला है।
इसी भाँति जगती का रज- कण,
इन्द्रधनुष सा रंग डाला है;
धूल अर्श पर बहुत जमी थी,
बारिश ने सब धो डाला है।
जगती लतिका पर जब नीलोत्पल खिल जाते हैं
लालायित हो कर देव मधूप उतर आते हैं
त्रिगुणा मलयानिल यग्य- धूम विस्त्रित करती है
उद्भिजा लता यह शान्तनु को कृत कृत करती है;
साम्राज्य तमिस्रों का तब घोर विपन्न हुआ था,
जब भरतवंश में यह मानव उत्पन्न हुआ था
इस पुण्य लता का रस सिंचन यह ही कर पाया
श्री किसलय से किल्विष का मर्दन भी कर आया ।
उसी लता पर अमृत तरल लो आज़ पड़ा है,
हुआ आज़ धरणी का कुछ उपकार बड़ा है
सुधा कुक्षि से तेज़ अष्ट वसुओं का आया,
सीपी ने कैसा यह अद्भुत मोती पाया ?
देवव्रती यह तनय मिला है धर्मव्रती को,
और भला क्या रत्न चाहिये इस धरती को ?
नैसर्गिक उपहार दिया है सुरसरिता धारा ने,
आया है गोलोक धरित्री पर कुछ पुण्य कमाने।
दिद्यक्षु चक्षु अब शान्तनु के कुछ त्रिप्त हुए हैं
बुझते दीपक नवल ज्योति पा दीप्त हुए हैं
आज़ भानु अष्टम उग आया इस अम्बर में
भय अभान उत्पन्न हुआ पर घोर निडर में
क्या प्रदीप यह और प्रज्ज्वलित हो पायेगा,
या झंझावातों में यह भी खो जायेगा ?
शंका से तो मनुज़ सहमकर ही जीता है
जला दूध का छाछ फूँककर ही पीता है।
चिंता नहीं हमारा कुछ भी ले पाती है,
अन्तर में पीड़ा दुस्सह तो दे जाती है;
जिस डाली ने सुरभित सातों कलियाँ खो दीं
अष्टम की कुछ चिंता तो माली को होगी
वृंत बचाने को कलियाँ सब खोता आया,
सुरभि अंश से वंचित अबतक होता आया।
नयनाञ्जन तज़ और चाहिये क्या काने को?
एक कुसुम तो हो उपवन को महकाने को।
पुत्र बिना भव मुक्ति भला किसने पायी है?
चिन्ता एक तनय की सचमुच दुखदायी है।
आज़ मुझे कुछ ठोस हृदय में धरना होगा
पाने को कुछ त्याग कहीं तो करना होगा।
यही अटल संकल्प नृपति के मन में भी था,
माली में था और आज़ उपवन में भी था।
अभी धुँधलका है
पगडंडी पर बिछी
ओस बिखराते चतुष्पद
फ़िर चले
एक वृत्त रचने-
पुटठों पर लदा
बोझ , आदत-
वलक्ष काया पर लिखी
कोड़े की फ़ितरत
पगहे से रिसता जूट का स्वाद
त्वचा में चुभतीं पसलियाँ
फ़िर भी-
अप्रतिहत, अनवरत चलते पाँव-
सर्वविदित,
तथ्य,
कोल्हू ऐसे ही चलता है
बूँद भर
तेल बनाने को
पाव भर
खून जलता है
लिप्सा का एक केन्द्र
त्रिज्या में बँधे- अन्यथा कूष्माण्ड,
परिधि पर लिखते रह्ते
स्वेद का व्यक्तित्त्व-
कोल्हू ऐसे ही तो चलता है!!
दिनात्यय पर,
गिनता है कोई
परिधि बनाते बिंदुओं को ?
मृत्तिका पर लिखी-
डंडे की चोट पर भागती- पशु-प्रवृत्ति
बेमानी है,
असल बात तो यह है
कि
एक पसेरी तेल निकला।
वृत्त फिर भी चलता है-
और
पास ही खड़ा
डंडे मारता
आदमी
समझता है -
वह नहीं बँधा कोल्हू में ।
प्रस्तर -तनुजा , तन्वि -स्नेहिल सरिता
भाव भर - भर भार ढोती - कल्पना ;
नीरसा रसभरी , शीतल ऊष्णता
शशिकला , कमनीयता -कोमल कली की |
रेत पर बह्ती सुशीतल गीतिका -
सप्त रव , रंगीन रश्मि - विभा
काम तरु का गरल फल , निष्काम;
घटा में घट भर भरी श्यामल प्रभा
स्वस्ति सुधा , विहग व्रती की |
भाव भर अभाव , नेत्र - धारा सार
ह्रिदय वीणा- क्लेष राग रव,
श्रान्त चरण चपल , विकल चक्षु
तोष , त्रिप्ति - मरीचिका -सैकत पथी की|
ताप ,तेज - नित नया भानु रचती
सुप्त बुत -बेकल नयन में
सृष्टि- सारा, अश्रु धारा - लोल लहरें
प्रलयदा हुंकार - दलित यती की |
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