Saturday, January 27, 2007

शान्तनु की चिंता

जगती लतिका पर जब नीलोत्पल खिल जाते हैं


लालायित हो कर देव मधूप उतर आते हैं


त्रिगुणा मलयानिल यग्य- धूम विस्त्रित करती है


उद्भिजा लता यह शान्तनु को कृत कृत करती है;


साम्राज्य तमिस्रों का तब घोर विपन्न हुआ था,


जब भरतवंश में यह मानव उत्पन्न हुआ था


इस पुण्य लता का रस सिंचन यह ही कर पाया


श्री किसलय से किल्विष का मर्दन भी कर आया ।


उसी लता पर अमृत तरल लो आज़ पड़ा है,


हुआ आज़ धरणी का कुछ उपकार बड़ा है


सुधा कुक्षि से तेज़ अष्ट वसुओं का आया,


सीपी ने कैसा यह अद्भुत मोती पाया ?


देवव्रती यह तनय मिला है धर्मव्रती को,


और भला क्या रत्न चाहिये इस धरती को ?


नैसर्गिक उपहार दिया है सुरसरिता धारा ने,


आया है गोलोक धरित्री पर कुछ पुण्य कमाने।


दिद्यक्षु चक्षु अब शान्तनु के कुछ त्रिप्त हुए हैं


बुझते दीपक नवल ज्योति पा दीप्त हुए हैं


आज़ भानु अष्टम उग आया इस अम्बर में


भय अभान उत्पन्न हुआ पर घोर निडर में


क्या प्रदीप यह और प्रज्ज्वलित हो पायेगा,


या झंझावातों में यह भी खो जायेगा ?


शंका से तो मनुज़ सहमकर ही जीता है


जला दूध का छाछ फूँककर ही पीता है।


चिंता नहीं हमारा कुछ भी ले पाती है,


अन्तर में पीड़ा दुस्सह तो दे जाती है;


जिस डाली ने सुरभित सातों कलियाँ खो दीं


अष्टम की कुछ चिंता तो माली को होगी


वृंत बचाने को कलियाँ सब खोता आया,


सुरभि अंश से वंचित अबतक होता आया।


नयनाञ्जन तज़ और चाहिये क्या काने को?


एक कुसुम तो हो उपवन को महकाने को।


पुत्र बिना भव मुक्ति भला किसने पायी है?


चिन्ता एक तनय की सचमुच दुखदायी है।


आज़ मुझे कुछ ठोस हृदय में धरना होगा


पाने को कुछ त्याग कहीं तो करना होगा।


यही अटल संकल्प नृपति के मन में भी था,


माली में था और आज़ उपवन में भी था।



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कोल्हू के बैल

अभी धुँधलका है
पगडंडी पर बिछी
ओस बिखराते चतुष्पद
फ़िर चले
एक वृत्त रचने-

पुटठों पर लदा
बोझ , आदत-
वलक्ष काया पर लिखी
कोड़े की फ़ितरत
पगहे से रिसता जूट का स्वाद
त्वचा में चुभतीं पसलियाँ
फ़िर भी-
अप्रतिहत, अनवरत चलते पाँव-

सर्वविदित,
तथ्य,
कोल्हू ऐसे ही चलता है
बूँद भर
तेल बनाने को
पाव भर
खून जलता है

लिप्सा का एक केन्द्र
त्रिज्या में बँधे- अन्यथा कूष्माण्ड,
परिधि पर लिखते रह्ते
स्वेद का व्यक्तित्त्व-
कोल्हू ऐसे ही तो चलता है!!

दिनात्यय पर,
गिनता है कोई
परिधि बनाते बिंदुओं को ?
मृत्तिका पर लिखी-
डंडे की चोट पर भागती- पशु-प्रवृत्ति
बेमानी है,
असल बात तो यह है
कि
एक पसेरी तेल निकला।

वृत्त फिर भी चलता है-
और
पास ही खड़ा
डंडे मारता
आदमी
समझता है -
वह नहीं बँधा कोल्हू में ।

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कविता

प्रस्तर -तनुजा , तन्वि -स्नेहिल सरिता


भाव भर - भर भार ढोती - कल्पना ;


नीरसा रसभरी , शीतल ऊष्णता


शशिकला , कमनीयता -कोमल कली की |



रेत पर बह्ती सुशीतल गीतिका -


सप्त रव , रंगीन रश्मि - विभा


काम तरु का गरल फल , निष्काम;


घटा में घट भर भरी श्यामल प्रभा


स्वस्ति सुधा , विहग व्रती की |


भाव भर अभाव , नेत्र - धारा सार


ह्रिदय वीणा- क्लेष राग रव,


श्रान्त चरण चपल , विकल चक्षु


तोष , त्रिप्ति - मरीचिका -सैकत पथी की|



ताप ,तेज - नित नया भानु रचती


सुप्त बुत -बेकल नयन में


सृष्टि- सारा, अश्रु धारा - लोल लहरें


प्रलयदा हुंकार - दलित यती की |


-आलोक शंकर

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