Wednesday, January 23, 2008

थी बड़ी ही देर चुप्पी

लोग कहते हैं, कि हमने चाहतों में मात खाई
इस कदर लहरों ने अपने प्यार की कश्ती डुबाई
बस जरा सी बात थी ,अपनी समझ में जो न आई
मैं जिसे समझा सफ़र है, तुम उसे समझे लड़ाई

——— 2———-
पीर मेरी रागिनी है, दर्द मेरा साज़ है
खो गये अल्फ़ाज़ मेरे ,गुम बड़ी आवाज़ है
अब न पूछो आज़ शायर क्यों गज़ल कहता नहीं
मय्यतों में गज़ल का होता न कोई रिवाज़ है

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हैं चकित सारे सितारे,हो गया कवि बावला है
आसमाँ पर इन्कलाबों की फ़सल बोने चला है
ऐ खुदा सूरज़ छुपा ले अपने दामन के तले ,
आँख पर उसकी चमकने आज़ एक दीपक ज़ला है।”
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चाहतों को कोई आशियां न मिला
मदीने में भी गये, खुदा न मिला
ढूँढ़ते हम रह गये सारे जहान में
एक भी सुकून का दुकाँ न मिला

——–5———–

थी बड़ी ही देर चुप्पी , अब ज़रा आवाज़ हो
अँधेरों के इस शहर में सुबह का आगाज़ हो
कौन कहता है हवा पर पाँव रख सकते नहीं
आसमाँ छूने का ये शायद कोई अंदाज़ हो।

-आलोक शंकर

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Monday, January 14, 2008

गज़ल

महफ़िलों की नीयतें बदल गयीं हैं आजकल
महमिलों से आजकल शराब निकलती नहीं

क़ातिलों के कायदे खुदा भी जानता नहीं
जान गई पर मुई हिज़ाब निकलती नहीं

जिन्दगी जवाब चाहती हरेक ख्वाब का
ख्वाब बह गये मगर अज़ाब निकलती नहीं

ख़्वाहिशों के अश्क हैं हज़ार मौत मर रहे
कब्रगाह से मगर चनाब निकलती नहीं

क़ौम कई लुट गये मोहब्बतों के खेल में
क्यों इबादतों से इन्कलाब निकलती नहीं

तेरे इन्तजार में बिगड़ गयी हैं आदतें
रह गयी है उम्र बेहिसाब निकलती नहीं ।

इस क़दर है ज़िन्दगी की लौ यहाँ बुझी-बुझी,
एक भी चराग़ से है आग निकलती नहीं

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