थी बड़ी ही देर चुप्पी
लोग कहते हैं, कि हमने चाहतों में मात खाई
इस कदर लहरों ने अपने प्यार की कश्ती डुबाई
बस जरा सी बात थी ,अपनी समझ में जो न आई
मैं जिसे समझा सफ़र है, तुम उसे समझे लड़ाई
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पीर मेरी रागिनी है, दर्द मेरा साज़ है
खो गये अल्फ़ाज़ मेरे ,गुम बड़ी आवाज़ है
अब न पूछो आज़ शायर क्यों गज़ल कहता नहीं
मय्यतों में गज़ल का होता न कोई रिवाज़ है
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हैं चकित सारे सितारे,हो गया कवि बावला है
आसमाँ पर इन्कलाबों की फ़सल बोने चला है
ऐ खुदा सूरज़ छुपा ले अपने दामन के तले ,
आँख पर उसकी चमकने आज़ एक दीपक ज़ला है।”
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चाहतों को कोई आशियां न मिला
मदीने में भी गये, खुदा न मिला
ढूँढ़ते हम रह गये सारे जहान में
एक भी सुकून का दुकाँ न मिला
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थी बड़ी ही देर चुप्पी , अब ज़रा आवाज़ हो
अँधेरों के इस शहर में सुबह का आगाज़ हो
कौन कहता है हवा पर पाँव रख सकते नहीं
आसमाँ छूने का ये शायद कोई अंदाज़ हो।
-आलोक शंकर