Thursday, February 21, 2008

राम नही बसते धरती के मंदिर और शिवालो में
या चन्दन टीका करके बस भोग लगाने वालो में
वे मर्यादा की प्रधानता का प्रतीक हैं , संबल है
उन हृदयों में राम बसें ,जो प्रेम भाव से विह्वल हैं
-आलोक

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Wednesday, February 20, 2008

उजालों की जानिब कहाँ जिन्दगी है
दहकती सुबह ,खौलता आसमाँ है
चलो ढूँढ़ते हैं गमों का बहाना
बहुत देर से रोशनी का समाँ है ।

बहुत चाँदनी जी चुकी हैं निगाहें
कि आँखों में सीलन है,कोहरा घना है
न अब ख्वाब डालो हमारी नसों में
उनींदे समय को जरा जागना है ।

कहीं और ढूँढ़ें चलो आशियाने
फ़लक पर बहुत रंज बिखरे पड़े हैं
कहाँ तक सितारे बुझाते रहोगे
तुम्हारे शहर में हज़ारों पड़े हैं

खड़े आईनों में कई अजनबी थे
हमें होश आया संभलते-संभलते
बड़ा प्यार था आदमी से खुदा को
फ़रिश्ता हुआ वो बदलते-बदलते
-आलोक शंकर

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Saturday, February 16, 2008

टीस


कमरे के बियाँबान में
काँटों को छूती हुई
अष्टावक्र सी दिखती हुई एक आकृति
लेटी है,
या बचना चाहती
काँटों से बदन पर लिख रहे
अँधेरों से--
शरीर के गँदले पर
चीरे की कालिख़ दुखती है
आह! यह पिंजर!! पिंजर !!
फड़फड़ाते हुए विखंडित पंख ,
मिरगी-से काँपते -उछलते
फड़-फड़ फड़-फड़, शांत ।
असंभव है , उल्लंघन -
फड़फड़ाने की सीमा-ऊर्जा का ;
दूसरा भाग-
कसमसाता है, फड़-फड़ होती थोड़ी
हाय! चुभते हैं काँटे,
छलनी-छलनी होती चमड़ी में
और बारीक छिद्र करते -
तीर सी चुभती है हवा, समाती है
भीतर- कँपा देती वहाँ के निर्वात को भी !
उग आते हैं वक्र के आठों चिन्ह
चेहरे पर भी !
विध्वंसक है टकराव,
बाहर-भीतर की कालिख का-
जाने कब फ़ट पड़े
विष की झील के नीचे
सोया ज्वालामुखी,
छनाक! तोड़कर पानी की परत को
चमड़ी की छेदों से निकलती
विषैली आग और धुआँ
बदल न दे हरी भरी दुनिया को
गैस चेम्बर में!

कोटिशः बार मृत बदन
के विषैले धुएँ से
मर न जाएँ हजारों जीवित लोग,
चीखते-चिल्लाते-भागते
एक-दूसरे और अपने आप से,
और मढ़ें इल्ज़ाम धुएँ पर-
उफ़! घुटन होती है,
फ़िर वही कसमसाहट!
चमड़ी में फ़िर छेद !
फ़िर चुभन!
धुआँ ! धुआँ !!
कमरे की टीस असह्य है ।

उठकर भागता है
लेकर कटे-फटे बदन को ले-
रिसते गंदे लिज़लिज़े रक्त को
तोड़कर दरवाज़ा
जंगल के उस अकेले कमरे का,
झील की तरफ़
नंगे पाँव ,
अपने हिस्से की लाल कीचड़ में
डुबोते हुए पाँव ,
अंगुलियों के बीच की फ़ाँक से
ठंढे कीचड़ को रास्ता देते हुए,
और रखते हुए कदम
हड्डियों के ढेर पर !
जंगल के अपने हिस्से की
छिदी, रिसती आत्माओं की हड्डियाँ
पाँवों के नीचे आकर टूटतीं
और
चुभतीं पाँवों में
चूसकर रक्त थोड़ा
मिलाती और लाल रंग
कीचड़ में !!
झींगुरों की टिर्र टिर्र ………
जंगल की टीस असह्य है !

तेजी से भागता है-
खिसकती-सिसकती खोपड़ियों पर
सरपट रखता पैर,
झील के पानी से
जल्दी जल्दी ,धोता है लाल खून,
सफ़ेद पानी में लाल रंग
घुलता है धीरे धीरे,
हो जाता है हल्का लाल
पनियाले रक्त से धुलता है
और रक्त , अजस्र स्रोत से निकलता हुआ,
और झील में भर जाता है -
लाल पानी;
लाल से धुलता लाल !!
झील की टीस असह्य है ।

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