स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं
हो गया इतिहास लोहित
यदि हमारे ही लहू से
है खड़ा विकराल अरि
द्रुत छीनता विश्रान्ति भू से
बादलों की हूक से
पर्वत-हृदय डरते नहीं हैं
स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं
तीन रंगों से बनी जो
है वही तस्वीर प्यासी
भारती के चक्षु कोरों
पर उगी कोई उदासी
किंतु ये मोती पिघलकर
धीरता हरते नहीं हैं
स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं
यह नहीं दावा कि
सोते पर्वतों से चल पड़ेंगें
या कि सदियों से सुषुप्त
ललाट पर कुछ बल पड़ेंगें
पर अवनि के पार्थ
यूँ गाँडीव को धरते नहीं हैं
स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं
है कठिन चलना अगर
कठिनाइयों के पत्थरो पर
विश्व हेतु उठा हलाहल
को लगाना निज- अधर पर
शंकरो पर विषधरो के
विष असर करते नहीं हैं
स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं
-Alok Shankar