Sunday, September 19, 2010

प्रतिध्वनि

किसी आश्वस्त घाटी में कभी आवाज यदि गूँजे
समझना यह तुम्हारी ही प्रतिध्वनि लौट कर आयी ।
यही आवाज जिसकी धार धड़कन तक पहुँचती है
उसी का वेग, पत्ते-सी हिली जो आज परछाईं ।

हमेशा याद के कोमल गलीचों पर धमकती है
किसी तलवार से है चीर देती रोज तनहाई
बड़े भारी कदम इसके, हृदय पर पड़ रहे हैं रे !
कि इसकी चोट से बह पीर आँखों से निकल आई ।

हमारी प्यास से क्यों होंठ धरती के फ़टे जाते
हमारी भूल की कैसे भला उसने सज़ा पाई ?
बड़ा निर्वात है रे आज भीतर के अहाते में !
बहा कर ले गये हो तुम न जाने कहाँ पुरवाई ।

बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे
न जाने किरकिरी कैसी फ़िसलकर आँख में आई ,
तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई ।

Read more...

Monday, September 6, 2010

रात

रात
पिघल रही है -
धीरे धीरे
देखते हैं ,
सूरज में गर्मी कितनी है |

Read more...

  © Blogger templates The Professional Template by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP