तुम्हारे और हमारे सब अँधेरे हैं वहीँ ठहरे
न मानो तुम मगर, सब उनके सच भी हैं बड़े नंगे
ये बूँदें उनके लोहू की नयी रिसती नुमाइश है
किसी बारिश में तुम भींगो,
तो रुक कर सोचना एक पल
कि किन सदियों की बूँदें हैं
ये किस मौसम की बारिश है
हर उस कविता में टीवी के विज्ञापन और बाकी घिसी पिटी चीजें भर दी जाएँ
किसी आश्वस्त घाटी में कभी आवाज यदि गूँजे
समझना यह तुम्हारी ही प्रतिध्वनि लौट कर आयी ।
यही आवाज जिसकी धार धड़कन तक पहुँचती है
उसी का वेग, पत्ते-सी हिली जो आज परछाईं ।
हमेशा याद के कोमल गलीचों पर धमकती है
किसी तलवार से है चीर देती रोज तनहाई
बड़े भारी कदम इसके, हृदय पर पड़ रहे हैं रे !
कि इसकी चोट से बह पीर आँखों से निकल आई ।
हमारी प्यास से क्यों होंठ धरती के फ़टे जाते
हमारी भूल की कैसे भला उसने सज़ा पाई ?
बड़ा निर्वात है रे आज भीतर के अहाते में !
बहा कर ले गये हो तुम न जाने कहाँ पुरवाई ।
बिछा कर नींद सोते थे हम अपनी आँख के नीचे
न जाने किरकिरी कैसी फ़िसलकर आँख में आई ,
तुम्हारे चैन के आगे कहीं पत्थर पड़ा होगा
तभी आवाज़ अपनी लौटकर वापस चली आई ।
ये खराश-ए-दिल है क्यों , हैं निगाहें लहूलुहान
कल शब् तो गुल खिले थे इधर , ईदगाह थे
मेरा ही तो दिल नहीं है कि जिसपर सितम हुए
तब उनकी निगाहों से जमाने तबाह थे
सब वक्त लुट गया मेरा , एक पल भी ना रहा
एक दौर था कि हम भी बड़े बादशाह थे
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