इतने बुतों के ढेर पर बैठा है आदमी
इतने बुतों के ढेर पर बैठा है आदमी
कि आज अपने आप में तनहा है आदमी|
अपने खुदा के नाम पर मरना तो है कबूल
इंसां से किस कदर यहाँ खफा है आदमी |
किस किस की आह पर भला अब जिंदगी रुके,
कब जिंदगी की आह पर ठहरा है आदमी|
कल डूबते रहे कोई तिनका नहीं मिला ,
क्यों इतने गहरे ख्वाब से लड़ता है आदमी |
उल्फत की राह में कई , 'आलोक' , मर गए
पर नफरतों से आज भी मरता है आदमी
3 comments:
आज अपने आप में तनहा है आदमी , शायद ऐसा ना होता अगर हम लोलुपता के चक्कर में ना पड़ते तो
आदमी इस तरह से बदल रहा है की आज कल पता ही नही चल पता की तब कौन था और अब कौन हो गया
ये आदमी ...क्यों करता है ऐसा आदमी ...क्यों मरता है नफरतों में आदमी ...
सुन्दर कविता ...!!
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