Monday, February 19, 2007

परछाइयाँ

नोट : यह कविता पत्रिका 'अनुभूति ' में प्रकाशित है ।


काँच की परछाइयों में कुछ नई तो बात है


रोशनी से टूटती तो हैं, मगर निःशब्द हैं


आहटों से खेलकर तो बात कुछ बनती नहीं ,


ख्वाहिशों को गूँथकर बनता कहीं कुछ राग हो;


कौन कहता है हवा पर पाँव रख सकते नहीं,


आसमाँ छूने का ये शायद कोई अन्दाज हो।


कोई पर्दा रोशनी को रोक तो सकता नहीं,


नींद से फिर जाग लेने में बड़ी क्या बात है;


देखना, पर जागने से, ना गिरें परछाइयाँ


गूँजती परछाइयों की दूर तक आवाज़ है

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