Tuesday, February 20, 2007

कवि रे, कर अब निर्मम गान

बीत गई वह निशा सुखद- सी,
टूटा अम्बर का अभिमान;
सारे उसके हँसते माणिक ,
बिखरे भू पर हो निष्प्राण ।

उदयाचल की ओर जरा लख,
क्षीण हुई सारी श्री , मान ;
रजतरश्मियाँ क्षीण हो उठीं,
लुप्त हुए विभु के यश गान ।

मधुरम कंठस्वर को तज रे,
कवि तू कर अब निर्मम गान ।

छलक पड़ा है विष कलियों से,
खग करते प्रलयंकर गान;
चंद जीर्ण पत्रों के वश में,
आज हुए तरु के ही प्राण ।

कर्कश स्वर वंशी से निकले,
देख, हुई वृंदा वीरान;
दिक्कालिमा मध्य रोते हैं,
गीता , मानस और कुरान ।

वीणा में संहारक स्वर भर
कवि रे, कर अब निर्मम गान ।

आज समय की दिशा बदल दे
तोड़ क्रूर तम का अभिमान;
दिनकर की तू ज्योति फिरा दे,
कर दे अब भू का कल्याण ।

सूने अम्बर में शब्दों के ,
मोती भर , लौटा दे प्राण ;
शीतल कर तू आज शशिकला,
लौटा विहगों के मधु- गान ।

कवि , अपने भैरव स्वर से,
कर दे आतंकित दुर्जन - प्राण ;
चिनगारी छिटका शब्दों से ,
करा गगन जो ज्योति - स्नान ।

निज कविता के कर्कश स्वर से,
आज कँपा दे सबके प्राण
भर , कविता में अब कटु -स्वर भर
कवि तू कर अब निर्मम गान ।

रचनाकाल - 2000 , यह कविता मेरे विद्यालय की पत्रिका ' विकास - वाणी ' में प्रकाशित है और मेरी सबसे पहली रचनाओं में से एक है ।
सस्नेह
आलोक शंकर

2 comments:

अभिनव February 20, 2007 at 6:41 PM  

भाई आलोक आपकी कविताएं पढ़कर अच्छा लगा।

Alok Shankar March 16, 2007 at 12:24 PM  

धन्यवाद अभिनव

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