हाथ होते गर हजारों
आदमी यह सोचता है, काश अपने पंख होते,
तो गगन में उड़ रहे हम खग-सदृश निःशंक होते ।
आज जीवन में हमारे उलझनें जो आ पड़ीं हैं,
और यदि सामर्थ्य से लगने लगी विपदा बड़ी है ।
दीप यदि उम्मीद का , होकर विवश बुझने लगा है,
और मन का दीप्त कोना ज्योति से चुकने लगा है ।
नीति यह कहती नहीं है हारकर पथ छोड़ देना,
श्रेय है तब राह का हर एक पत्थर तोड़ देना ।
आदमी के सामने कोई विपद कबतक टिकेगा ?
यदि हिमालय भी खड़ा हो सामने, पल में मिटेगा ।
कर-द्वयों से तोड़ लाते तुम्हें , नभ के चाँद- तारों
सोच लो, क्या कर गुजरते, हाथ होते गर हज़ारों ।
1 comments:
आप तो बहुत सुंदर लिखते है...आदमी के विचारो की उड़ान क्या कहने...बहुत ही सटिक लिखा है...
आदमी यह सोचता है, काश अपने पंख होते,
तो गगन में उड़ रहे हम खग-सदृश निःशंक होते
और फ़िर एक सन्देश देती रचना भी है...
नीति यह कहती नहीं है हारकर पथ छोड़ देना,
श्रेय है तब राह का हर एक पत्थर तोड़ देना ।
बहुत ही उत्तम-श्रेष्ठ रचना! बहुत-बहुत बधाई...
सुनीता(शानू)
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