गज़ल
महफ़िलों की नीयतें बदल गयीं हैं आजकल
महमिलों से आजकल शराब निकलती नहीं
क़ातिलों के कायदे खुदा भी जानता नहीं
जान गई पर मुई हिज़ाब निकलती नहीं
जिन्दगी जवाब चाहती हरेक ख्वाब का
ख्वाब बह गये मगर अज़ाब निकलती नहीं
ख़्वाहिशों के अश्क हैं हज़ार मौत मर रहे
कब्रगाह से मगर चनाब निकलती नहीं
क़ौम कई लुट गये मोहब्बतों के खेल में
क्यों इबादतों से इन्कलाब निकलती नहीं
तेरे इन्तजार में बिगड़ गयी हैं आदतें
रह गयी है उम्र बेहिसाब निकलती नहीं ।
इस क़दर है ज़िन्दगी की लौ यहाँ बुझी-बुझी,
एक भी चराग़ से है आग निकलती नहीं
5 comments:
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तेरे इन्तजार में बिगड़ गयी हैं आदतें
रह गयी है उम्र बेहिसाब निकलती नहीं ।
waah kavi mahoday .. mujhe aapke prerna shrot se milne ka ichha hota hai .. kya is nacheej ki ye chhoti si khwahish kabhi aap pura karenge ??
अलोक जी,
इस ग़ज़ल को पढ़कर लगता है की आपकी लेखनी में वह सभी जरुरी सामग्री है जो एक परिपक्व कवि में होना चाहिए | बेहतरीन रचना है यह !
आभार,
सतीश
vaah vaah ............ ati sundar
क्यों इबादतों से इन्कलाब निकलती नहीं....
kaafi umda ghazal... aap ko shilpi par padha hai.. kaafi sundar likhte hain aap..
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