Monday, February 19, 2007

आगाज़


नोट : यह कविता पत्रिका 'अनुभूति ' में प्रकाशित है ।


शुष्क-शीर्ण


कमलिनि लता में


नवल किसलय


आज फ़ूटा -


नीरसा मृत्तिका में


कहीं तो रस आज बाकी है।


सुनो -


निस्पंद


नीरव


निर्वात में गुनगुनाते


नूपुरों का क्वणन-


दिगन्त शब्दमान है;


जिह्वा कट गयी ,


वदनों में


कुछ -


आवाज़ बाकी है।



बचो,


झन्झा से उड़ गये पर्दे धवल


द्युति की द्युति में


दिक्कालिमा को प्रश्रय नवल;


कुछ भी तो नहीं अकिंचन-


श्यामल ,शीतल


क्या कहीं कोई


राज़ बाकी है?


सब तो है , पर


कुछ नहीं,


शायद-


तलाश आज़ बाकी है।



देखो-


आदमी की लाश से


कुछ अमर्त्य सा


उठ रहा है;


हिम सा उष्ण,


आग सा शीतल


अभी-


आदमीयत का


आगाज़ बाकी है।


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