आगाज़
नोट : यह कविता पत्रिका 'अनुभूति ' में प्रकाशित है ।
शुष्क-शीर्ण
कमलिनि लता में
नवल किसलय
आज फ़ूटा -
नीरसा मृत्तिका में
कहीं तो रस आज बाकी है।
सुनो -
निस्पंद
नीरव
निर्वात में गुनगुनाते
नूपुरों का क्वणन-
दिगन्त शब्दमान है;
जिह्वा कट गयी ,
वदनों में
कुछ -
आवाज़ बाकी है।
बचो,
झन्झा से उड़ गये पर्दे धवल
द्युति की द्युति में
दिक्कालिमा को प्रश्रय नवल;
कुछ भी तो नहीं अकिंचन-
श्यामल ,शीतल
क्या कहीं कोई
राज़ बाकी है?
सब तो है , पर
कुछ नहीं,
शायद-
तलाश आज़ बाकी है।
देखो-
आदमी की लाश से
कुछ अमर्त्य सा
उठ रहा है;
हिम सा उष्ण,
आग सा शीतल
अभी-
आदमीयत का
आगाज़ बाकी है।
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