Friday, October 2, 2009

इतने बुतों के ढेर पर बैठा है आदमी

इतने बुतों के ढेर पर बैठा है आदमी
कि आज अपने आप में तनहा है आदमी|

अपने खुदा के नाम पर मरना तो है कबूल
इंसां से किस कदर यहाँ खफा है आदमी |

किस किस की आह पर भला अब जिंदगी रुके,
कब जिंदगी की आह पर ठहरा है आदमी|

कल डूबते रहे कोई तिनका नहीं मिला ,
क्यों इतने गहरे ख्वाब से लड़ता है आदमी |

उल्फत की राह में कई , 'आलोक' , मर गए
पर नफरतों से आज भी मरता है आदमी

Thursday, May 28, 2009

स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं

हो गया इतिहास लोहित
यदि हमारे ही लहू से
है खड़ा विकराल अरि
द्रुत छीनता विश्रान्ति भू से
बादलों की हूक से
पर्वत-हृदय डरते नहीं हैं
स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं


तीन रंगों से बनी जो
है वही तस्वीर प्यासी
भारती के चक्षु कोरों
पर उगी कोई उदासी
किंतु ये मोती पिघलकर
धीरता हरते नहीं हैं
स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं


यह नहीं दावा कि
सोते पर्वतों से चल पड़ेंगें
या कि सदियों से सुषुप्त
ललाट पर कुछ बल पड़ेंगें
पर अवनि के पार्थ
यूँ गाँडीव को धरते नहीं हैं
स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं


है कठिन चलना अगर
कठिनाइयों के पत्थरो पर
विश्व हेतु उठा हलाहल
को लगाना निज- अधर पर
शंकरो पर विषधरो के
विष असर करते नहीं हैं
स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं
-Alok Shankar

Monday, March 23, 2009

शहीद

कल बड़े उजाड़ होते हैं
और
होती है उनमे
जर्जर और वीरान खामोशी
कब्रिस्तान की तरह
जिनमें दबे होते हैं
कई प्रश्न
जिनकी कब्रों पर उगे होते हैं
हजारों उत्तर
चीखते और गुर्राते हुए
लाल लाल खून भरी आँखों से
बताते हुए
खामोश प्रश्नों का हश्र -
और
हैरान परेशान
आज ही जन्मे प्रश्न
ताकते हैं मेरी तरफ
उत्सुकता और भय से
भरी आँखों से
मैं
मुस्कुरा देता हूं
और डाल देता हूं
कब्र में दबे किसी प्रश्न में
अपने प्राण -
जानता हूँ , खतरा बहुत बड़ा है
आत्मघाती है
लेकिन जरुरी है
जिंदा रहना
प्रश्नों की पुरानी पीढी का
ताकि जिंदा रहे
आज की पीढी की उम्मीद -

Sunday, March 15, 2009

एक आदमी था


एक कवि था

या शायद कवि नहीं था-

लाख कोशिश करता
पर नहीं लिख पाता प्रेम कवितायें,
नहीं मान पाता था
घर के पास रहने वाली लड़की को चाँद
या फ़िर परी |

न उसे लड़कियों के परी
होने पर यकीन होता ,
न ही चांद के लड़की होने का |
लड़की उसके लिये व्रत रखती,
पर वो नहीं समझ पाता
उसके व्रत और अपनी उम्र के रिश्ते को
उसे कभी समझ न आया
कि सुन्दर को सुन्दर कहना
और प्यार को प्यार कहना
क्यों जरूरी है।
वह दिल से सोचती थी,
वह दिमाग पर यकीन करता |
फ़िर भी, उसके जिद करने पर
वह लिखता था कवितायें-
जिनमें सूरज
अपनी मर्जी से ढलता था,
उसकी पलकों के झुकने पर नहीं,
और नदियों में मटमैला पानी बहता था
रोमांटिक कहानियाँ नहीं ।
उसके लिखे को कभी
किसी ने कविता
और उस कवि को कवि नहीं माना |

एक संत था
या शायद संत नहीं था -
लाख कोशिश करता,
पर नहीं मान पाता
पत्थर को भगवान,
नहीं देख पाता कभी
आसमान में बसे हैवन और हेल को-
वह कभी नहीं समझ पाया
कि
भगवान को भगवान
होने की याद दिलाना क्यों जरूरी है
और आदर देने के लिये
सिर झुकाना क्यों जरूरी है
कभी उसके पल्ले नहीं पड़ा ,
उसके जीवन का कोई और
कैसे जिम्मेदार है
उसने कभी सिर नहीं झुकाया,
प्रार्थना नहीं की
और खुद को छोड़कर किसी और पर
यकीन न किया |
उसके किये को कभी भी इबादत
और उसे कभी भी संत नहीं माना गया |

एक आदमी था
या शायद आदमी नहीं था -

Thursday, February 19, 2009

एक और कविता

देखना ,
तुम्हारे शब्द हिलें नहीं
गाड़ देना जमीन में उन्हें
गहरा -
और रख देना उनके ऊपर पत्थर
ताकि हिला न पाएं अपनी पलकें
और निकल न पाएं कोंपल बनकर -

इस तरह रखना उन्हें
कि कोमलता छू भी न सके ,
और वे उगें तो सीधा ठूंठ की तरह
कठोर , नमीरहित हो कर
ताकि बनाया जा सके इन्हें
वज्र ऐसा
कि शत्रुओं का हो सके खात्मा ,
और न जाए किसी दधीचि की जान |

Saturday, January 31, 2009

सलीम बुढ्ढे पर मत रो

नहीं जी , अब डर नहीं लगता ,
दर्द नहीं होता
और आंसू भी दीखते नहीं पलको पर ,
अब कुछ टूटता भी है
तो बे-आवाज टूटता है

करना क्या है ?
बस पड़े पड़े
समय को पकड़ कर रुई बना लेता हूँ ,
और कातता हूँ रोज
धागे , सूत और रेशम के -
कल भेजी थी उसके लिए बना कर
रेशमी गुलाबी साड़ी ,
सोचा तो था कि ख़ुद ले जाऊं
पर समय बहुत है ,
और कितना रुई है
और कितने धागे कातने हैं ,
कह नहीं सकता

पहले ठीक नहीं लगता था यहाँ ,
अब ठीक है
रोज सुबह आती है एक तितली -
हाँ , अब खनक नहीं रही बदन में
और दिमाग कि फिरकी भी थम गई है
अब एकांत है ,सकून है

पुराने दिनों में ?
अजी ,तब सोना मिटटी हुआ करता था,
और उडानों में होते थे फंदे
बारीक बारीक -
जिनसे छू कर
छिल जातीं थीं उंगलियाँ -
तब मुझे इजाजत नहीं थी ,
कि चुन सकूँ
दशा और दिशा
अपने सपनों की ,....

रिश्तेदार ?
कल को संभाल कर रखा था
तकिये के नीचे
रोज चुभता था ,
और नींद से रगडा था उसका
तो एक दिन उड़ा दिया
पत्तों के साथ
आपको कुरेदना उधेड़ना ही है तो
यहीं पड़े हैं
इक्के दुक्के टुकड़े
कई किस्सों के , किश्तों में -
जिनका हिसाब कई बार ढूँढा,
पर हर बार
बत्तख की शक्ल वाली पानी की बोतल ही जीतती ,
जिसकी नाक शायद अब भी बहती है

अपने ?
सच कहो तो मुझे कोई
और किसी को मैं याद नहीं
या रखना नहीं चाहते , दोनों -
मैं जरा स्वार्थी आदमी हूँ जी
गम के मामले में
उन्हें कोई हक़ नहीं
कि
छू सके
मेरी चीखों की झालर भी |

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